16.05.2025
अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट को भेजा गया संवैधानिक संदर्भ
प्रसंग:
हाल ही में भारत के राष्ट्रपति ने एक संवैधानिक प्रश्न पर सुप्रीम कोर्ट से सलाह मांगी है। यह कदम अनुच्छेद 143 के तहत उठाया गया, जो राष्ट्रपति को संवैधानिक या जनहित के किसी गंभीर मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय से राय लेने का अधिकार देता है। यह भारतीय लोकतंत्र और विधिक ढांचे में न्यायपालिका की परामर्शदात्री भूमिका को दर्शाता है।
अनुच्छेद 143: क्या है यह प्रावधान?
- यह राष्ट्रपति को यह शक्ति देता है कि वे सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श मांग सकते हैं, यदि:
- कोई महत्वपूर्ण कानूनी या संवैधानिक प्रश्न सामने है, या
- ऐसा कोई विषय है जो जनहित में अत्यंत महत्वपूर्ण हो।
- न्यायालय का उत्तर:
- अनिवार्य नहीं है कि राष्ट्रपति दी गई सलाह का पालन करें।
- लेकिन सर्वोच्च न्यायालय को भेजा गया ऐसा संदर्भ, विधिक व्यवस्था के लिए मार्गदर्शनकारी होता है।
ऐतिहासिक उदाहरण:
- केशवनंद भारती के बाद (1973):
- सुप्रीम कोर्ट के 'बेसिक स्ट्रक्चर सिद्धांत' पर राष्ट्रपति ने राय मांगी थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उस संदर्भ को सुनवाई के लायक नहीं माना।
- राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद (1993):
- राष्ट्रपति ने पूछा: क्या वहाँ 6 दिसंबर 1992 से पहले मंदिर था?
- सुप्रीम कोर्ट ने जवाब देने से इनकार किया, कहा कि यह एक ऐतिहासिक-तथ्यात्मक सवाल है, संवैधानिक नहीं।
- बेरूबारी केस (1960):
- भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा विवाद से संबंधित था।
- सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया: क्षेत्र का हस्तांतरण केवल संवैधानिक संशोधन से संभव है।
- सारनाथ संदर्भ (2024, काल्पनिक उदाहरण):
- राष्ट्रपति ने यह जानना चाहा: क्या संसद एक धर्मविशेष के अनुयायियों को विशेष अल्पसंख्यक दर्जा दे सकती है?
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा: ऐसा कोई वर्गीकरण अनुच्छेद 14 और 15 के उल्लंघन की जांच में पड़ता है, और इससे जुड़ी विधायिका की सीमाएं निर्धारित की जा सकती हैं।
वर्तमान संदर्भ: (काल्पनिक विवरण)
- राष्ट्रपति ने सवाल भेजा है:
“क्या एक राज्यपाल, विधानसभा में सरकार गठन के समय, बहुमत सिद्ध करने से पूर्व किसी दल/गठबंधन को आमंत्रित कर सकता है, यदि वह बहुमत के बिना सबसे बड़ी पार्टी है?”
- यह सवाल महाराष्ट्र जैसे मामलों से प्रेरित हो सकता है, जहां राज्यपालों की भूमिका विवादास्पद रही है।
संवैधानिक महत्व:
- यह राष्ट्रपति और न्यायपालिका के बीच परामर्श की एक परिष्कृत प्रक्रिया है।
- यह सुनिश्चित करता है कि विवादास्पद मामलों में न्यायिक व्याख्या के माध्यम से स्पष्ट दिशा मिले।
आलोचनाएँ और सीमाएँ:
- सुप्रीम कोर्ट की सलाह बाध्यकारी नहीं होती, जिससे कई बार प्रभावहीनता की आशंका रहती है।
- कार्यपालिका इस प्रावधान का प्रयोग राजनीतिक प्रश्नों पर न्यायपालिका को घसीटने के लिए कर सकती है।
- कुछ मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने सलाह देने से इनकार भी किया है, जिससे इस प्रक्रिया की सीमाएँ उजागर होती हैं।
आगे का रास्ता:
- संवैधानिक शुद्धता सुनिश्चित हो:
राष्ट्रपति को केवल उन्हीं मामलों में परामर्श लेना चाहिए जो वास्तव में विधिक और संवैधानिक हों, न कि राजनीतिक।
- परिषद और न्यायपालिका में संतुलन:
इस परामर्श तंत्र का प्रयोग सुधारात्मक और मार्गदर्शक भूमिका में हो, न कि कार्यपालिका द्वारा दबाव बनाने के रूप में।
- पारदर्शिता बढ़े:
ऐसे संदर्भों और सुप्रीम कोर्ट की राय को जनसामान्य के लिए सुलभ और व्याख्यायित रूप में प्रस्तुत किया जाए।
निष्कर्ष:
अनुच्छेद 143, भारत के संविधान की एक अनोखी व्यवस्था है, जो राष्ट्रपति को न्यायिक राय लेने की शक्ति देता है। यह न्यायपालिका की परामर्शी भूमिका को औपचारिक बनाता है और विधिक जटिलताओं में मार्गदर्शन प्रदान करता है। हालांकि इसका प्रयोग सीमित और विवेकपूर्ण ढंग से किया जाना चाहिए, ताकि संवैधानिक संतुलन बना रहे और न्यायपालिका की निष्पक्षता अक्षुण्ण रहे।